Saturday, December 02, 2017

मिथिला कला में ‘बाजारवाद’ पर बहस क्यों ?


रविंद्र दास
वरिष्ठ कलाकार एवं कला समीक्षक

कला में नकल को निश्चित तौर पर बाजारवाद का दुष्परिणाम कह सकते हैं, लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि केवल असल के जरिये हासिल सम्मानों और पुरस्कारों से जीवन नहीं चलता है।

रविंद्र दास
वरिष्ठ कलाकार एवं समीक्षक
मिथिला कला को लेकर कुछ लोगों की प्रतिक्रिया मैं अक्सर पढता और सुनता रहता हूं कि बाजारवाद ने इस कला को बर्बाद किया। सवाल है कि क्या वाकई ऐसा हैबाजार की वजह से ही देश-विदेश में चर्चित हुई मिथिला कला क्या वाकई बाजारवाद के प्रभाव में बर्बाद हो रही हैक्या कलाकारों को अपनी कलाकृतियां बेचनी ही नहीं चाहिएक्या मुनाफा के अभाव में आर्ट गैलरियां और बिचौलिये इसका कारोबार करेंगे और अगर नहीं तो, मिथिला कला से जुड़े कलाकारों के समुचित बाजार की व्यवस्था किसी ने की है?

प्रश्न कलाकारों की जीवन-मृत्यु से भी जुड़ा है। यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्या सरकार या सहकारी संस्थाए ने लोक कलाकारों के जीवन यापन का समुचित साधन उपलब्ध कराया हैयही नहीं, किसी व्यक्ति, संस्था या सरकार ने उन लोककलाकारों की कोई डाइरेक्ट्री या उन पर कैटलॉग-पुस्तक का प्रकाशन किया है? इवाल इतना भर नहीं है। यह भी पूछा जाना चाहिए कि किसी कलाकार के बीमार पड़ने पर क्या सरकार या कोई सहकारी संस्था उनका इलाज कराती हैअभावों से हुई किसी कलाकार की मौत पर कोई शोक सभा आयोजित करती हैबड़े-बड़े पुरस्कार प्राप्त कलाकारों को भी गरीबी या तंगहाली का जीवन क्यों जीना पड़ता हैऔर सबसे महत्वपूर्ण सवाल तो यह है कि कलाकारों के शोषण और बाजार की वजह से संपन्न हुए तथाकथित कलामर्मज्ञ विपन्न कलाकारों से सेवा भावना की अपेक्षा करते हैं, क्यों?

बाजारवाद पर मेरे एक कामरेड साथी ने वर्षों पहले काफी गंभीर चर्चा की थी और तब यह सुनना अच्छा भी लगा था बाजारवाद के प्रभावों से बचाकर हम कलाकारों को उनके जीवन हेतु समुचित साधन उपलब्ध करा सकते हैं। लेकिन यह स्वप्न देखने समान था। आज सरकार भी बाजार से बेअसर नहीं है। बाजार पुंजीवादी व्यवस्था से संचालित होता है और इस तरह से कला इसी व्यवस्था के बीच संरक्षण और विस्तार पाती है, बहुत हद तक। बाजार ने बहुत हद तक मिथिला के कलाकारों को साधन मुहैया कराए, जिससे मिथिला कला स्थानीय से वैश्विक स्तर तक पहुंची और आज उत्कृष्ट रचनाएं हो रही हैं। ऐसा नहीं होता तो मिथिला कलाकार राष्ट्रीय पुरस्कारों और पद्मश्री सम्मान से सम्मानित नहीं होते।

ऐसा नहीं है कि बाजार ने सिर्फ मिथिला चित्रकला का ही विकास किया है, बल्कि अन्य कला विधाओं को भी इसने राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाया है और उनमें से एक है लोकगायिकी। पिछले दिनों मैथिली की एक लोक गायिका ने अपनी बातचीत में यह जानकारी दी कि अब मैथिली में गाने के लिए एक लाख तक की पारिश्रमिक मिल रही है। निश्चित तौर पर यह सुखद खबर है, लेकिन उन्हें मैथिली के अलावा अन्य भाषाओं में भी गायन करना पड़ता है। कला पर बाजार के प्रभाव की मुखालफत करने वाले लोगों को यह सोचना चाहिए कि इसकी वजह क्या है?

यह बात सत्य है कि मिथिला के अधिकतर कलाकार मूल रचना नहीं करते हैं और किसी न किसी कलाकार की नल करते रहे हैं, कुछ अज्ञानतावश पर और ज्यादातर अधिकतर बिचौलियों के प्रभाव में। इसे यूं समझना चाहिए कि जीवन की अपनी आवश्यकताएं हैं। बाजारवाद से आपत्ति तब जायज होती जब कलाकार का सिर्फ और सिर्फ शोषण होता।

दृश्य कला बाजार में बिचौलियों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है और वही सर्वाधिक मुनाफा कमाता है। यह मिथिला कला भी हुआ है। मिथिला के कलाकार इसे जानते-समझते हैं, लेकिन आप जरा उनसे पूछिये कि वो इसे शोषण क्यों नहीं मानते हैं। कला में नकल को निश्चित तौर पर बाजारवाद का दुष्परिणाम कह सकते हैं, लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि केवल असल के जरिये हासिल सम्मानों और पुरस्कारों से जीवन नहीं चलता है।

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